Saturday 4 October 2014

निष्ठुर

 

                                                

रात ढलते ही पिघलते
इस जिगर ने चीख दी

छोड़ दे ये मोह माया
वैराग्य की अब सीख दी

बंद कर वोह कारखाने
मृदु भावों का जो सृजन करें
छोड़ दे वोह संगठन
जो दूरियाँ उत्पन्न करें

तू हल चला अब इस कदर
कि स्वेद धरती को पिला
अर्जन न रुकने पाये धन का
गर रक्त तेरा ना जला

ले जकड़ कोमल ह्रदय को
प्रस्तर की सक्त ज़ंजीर से
खिन्न अनुताप शोकार्त भावों
का पलायन हो सके

निष्ठुर है हो जा तू सही
अब यूँ अकड़ते वृक्ष सा

तन से लगा पाला जिसे
वोह फल तोह लोभी ले गया
पर ये उदासीन गाछ तो
मदमस्त हो लेहरा रहा

कुछ खड़ी उपरान्त खोने
इक नया फल ला रहा

कुछ खड़ी उपरान्त खोने
इक नया फल ला रहा

बातें





कुछ बातें हैं
तूफानों सी .. बेख़ौफ़ चला करती हैं

कुछ बातें हैं
बिन बेड़ियों ..के भी रुका करती हैं

कुछ बातें हैं
जुबान तक ... आते ही थका करती हैं

कुछ बातें हैं
सागर सी ..बेपरवाह बहा करती हैं

कुछ बातें हैं
मोती बनकर .. आँखों मे बस जाती हैं

कुछ बातें हैं
अंगारों की बौछार करे ही जाती हैं

कुछ बातें हैं
आईनों सी ..साफ़ होती हैं

कुछ बातें हैं
विष भरा ..एक नाग होती हैं

कुछ बातें हैं
शिथिल लहू मे ....वेग लाती हैं

कुछ बातें हैं
जलते वन मे ...बारिश कर पाती हैं

कुछ बातें हैं
दर्द बिना बस मरहम लगाती हैं

कुछ बातें हैं
छू छू कर बस ...ज़ख्म बढाती हैं

बातों ही बातों मे मैंने
ताकत बातों की है जानी
सही कहीं या गलत कहीं
लिखती हैं सब एक अलग कहानी

उम्मीदों की चिंगारी से .. हमे तपाती हैं
निष्क्रियता की चादर खींच ....
ये हमे उठाती हैं

फिर बातें...कमजोर हैं कैसे
जब हमे चलाती हैं
फिर बातें...कमजोर हैं कैसे
जब हमे बनाती हैं |