Saturday 22 December 2012

कर्म कर करता ही चल




कर्म कर करता ही चल ...
बस यह मंत्र रमता ही चल ।।

यह जिस्म तेरा नाव है .....
और मन ही एक पतवार थी ...
क्या सोचा तूने...... रुक गया 
तोह थम गया ......संसार भी 

संसार एक ऐसी है धारा 
जिस मे बहता जग है सारा 
सबकी आँखों मे एक सपना 
उस  किनारे का नज़ारा ..........

तू बह गया अभिमान मे 
और खो गया तूफ़ान मे 
नाव तोह........ बहती है बस 
जहाँ राह दी........ पतवार ने 

अब चलो थको नहीं 
इस राह पर रुको नहीं 
जो फूल बिखरे राह मे 
उनके लिए झुको नहीं 

कर्म कर करता ही चल ...
बस यह मंत्र रमता ही चल ।।

Monday 10 December 2012

एक नाविक



   
दर्द एक नदिया है ................मीलों तक है पसरी जो यहाँ ........
पार करने की तोह ठानी .......हिम्मत भी उतनी थी कहाँ ...
एक किनारे हम खड़े थे ........कोई नाविक आ मिले 
उस किनारे तक तोह अपने साथ हमको ले चले 
तूफ़ान भी था अब उठा ......नदिया का पानी चढ़ गया 
घबराता मै  बस यू खड़ा ........कि एक नाविक मिल गया 
मीलों का था जो फासला........ वोह था अब मिट सा गया 
दर्द की नदिया का मंज़र........ भी था अब धूमिल हुआ 

उस किनारे की झलक को देखकर कुछ खुश हुआ ||
उस किनारे की झलक को देखकर कुछ खुश हुआ ||

इतने मे नाविक भी तीखे स्वर मे हमसे कह चला 
जो आज था मै  मिल गया .........सफ़र यह तुमने तय किया 
पर कल की सोचो अब तनिक......... जब पास न  हमको पाओगे 
उस भयावह शाम मे............ क्या उस पार जा पाओगे 
इसलिए कहता हूँ तुमसे ...........तैरना भी सीख लो 
नाव और पतवार की ..............मुझ नाविक से क्यूँ तुम भीख लो 
नाविक भी एक इंसान है तूफ़ान मे खो जायेगा 
एक नाविक जायेगा तोह एक नाविक आएगा 
उस किनारे और भी हैं जिनको है तुम सिख्लाओगे 

नदी न रोक पायेगी तुम सागर भी लांघ जाओगे ||





Sunday 9 December 2012

मेरा प्रतिबिम्भ



आज बचे हो लेकिन शायद कल न बच पाओगे 
जिन्दगी की इस दौड़ को तुम कभी ना जीत पाओगे 
मगर अब हताश होने से क्या 
न तो यह देह तेरा था और न ही यह संसार 
तेरा तो था कुछ लम्हों का साथ 
जिन्हें तू हमेशा करता था बेकार 

छोडो भी अब...... क्यूँ इतना शरमाते हो 
तुमारा ही प्रतिबिम्भ है....... जिससे तुम घबराते हो 
उठो चलो आगे बड़ो........ देर हो गयी तोह क्या गम है 
शुभ प्रभात भी तभी हुआ है...... जब हटा घनघोर तम है 

.....आगे निकल गए इतना सब .......कैसे पीछा कर पाऊँगा 
......क्यारी तोह मै पाट भी देता ........खायी कहाँ से पाटुंगा 

क्यारी बनायीं इंसान ने...... उसे पाटने का क्या अहम् है 
खायी बनायीं भगवान् ने ....जो नाका उसमे ही दम है 

सोचते होगे कौन हूँ मै ......इतना क्यूँ समझाता हूँ 
क़र्ज़ क्या है ऐसा ऊपर....... जिसे उतारना चाहता हूँ 

तू हसता था तू रोता था 
करवट बदल बदल सोता था 
बेचैनी की उन रातों मे .....मेरी सुन कर खुश होता था 
धूप छाव मे चलते चलते .....तू इतना थक जाता था 
खोल चारपाई ली अंगड़ाई .....भूल कर सब सो जाता था 

निर्भय निडर पथिक ओ नश्वर 
धूप छाव से डरता था 
तुझे बताया फिर समझाया 
वीर रस तब अन्दर भर पाया 
कर्मठता तेरे अन्दर थी ......उसे जगाना मुझे आता था 
तेरे हर वोह लक्ष्य के पीछे ......तुझे भगाना मुझे आता था 

शब्दकोष मे कमी हो मेरे ........मूक नहीं बन जाऊँगा 
जब जब गिरेगा तू भूमि पर .....तुझे उठाने आऊँगा 

तेरे अंतर्मन मे बसता हूँ 
प्रतिबिम्भ उसका कहलाऊँगा ।।

तेरे अंतर्मन मे बसता हूँ 
प्रतिबिम्भ उसका कहलाऊँगा ।।




नादान हूँ इतना नहीं



          
नादान हूँ इतना नहीं....... कि मन की भी न कह सकूँ
अरमान भी ऐसा नहीं..... कि दर्द दूसरों का लूँ 
दर्द का समंदर अन्दर दबा कर क्या करूँ 
कागज़ कलम है सामने........ तोह क्यूँ न फिर बयां करूँ
कबसे रखा था अन्दर .....इस दर्द को दबाकर
मानो बस जी रहा था ......मकसद इसे बनाकर
इतने समय तक क्यूँ मै ....चुपचाप बैठा था
यह दर्द का सागर .....क्यूँ इतना शांत रहता था 

एक वक़्त होता है ......हर बात को लाने का 
सन्नाटा संकेत होता है....... तूफ़ान के आने का 
दर्द-ए -सागर  ये मेरा लहरें भी है मेरी 
बोल हैं ये मेरे......... कविता भी है मेरी 

जब तक मन यह रोयेगा....... सागर यूँ भरता जायेगा 
कहर बरपाने को आतुर...... यह लहरों का बाण चलायेगा 
पर दर्द के इस सागर मे........ इक डर भी बढता जायेगा 
अपना ही कोई इस तूफ़ान मे बहता ही चला जायेगा 
बहता ही चला जायेगा ।।





पाप का पौधा





|||उन लोगों को समर्पित जो किसी मनुष्य की जान लेने से नहीं हिचकते |||

"" ऐसा नहीं की मार कर... बस नरक मे ही जाओगे 
अंत अनंत काल तक....... पाने को तरस जाओगे ""

दर्द दूसरों को देकर ....खुश भी था हुआ कभी 
नींद दूसरों की लेकर..... चैन से सोया कभी 
धोखा दिया था दूसरों को...... पर खुद को ही तूने ठगा 
लूटने गया था उठकर....... खुद के ही घर मे जा घुसा 

नफरत के दो बीज मिले क्या ......उन्हें ही तू घर ले आया 
इतने घरोंदों को जलाया.....  कि खाद मे भी राख ही लाया 
घर है तू हरपाल जलाता..... पानी भी कहाँ से पाता 
इसलिए पानी के बदले..... खून से ही सींच पाया 

बिन उजाले की झलक के..... इस अँधेरे की तलब से 
पाप का पौधा बनाया......... पाप का पौधा बनाया 

उन दानो को पौधा बनाने का कसूर तेरा ही था 
इस शतरंज की बिसाद पर तू बस एक प्यादा ही है 
तेरी ही क़ुरबानी से जीतेगा फिर राजा ही है 
तेरे ही कन्धों पर रखकर..... दागी गयी थी गोलियां 
तेरे ही कहने पर खेली....... खून की येह होलियाँ 
फिर सुबह हो इस आस मे..... रातें भी अब रोने लगीं 
दिन तोह छोटे हो गए थे ......रातें भी अब छोटी लगीं 
मानो अँधेरे को भी खुदसे .............अब घुटन होने लगी 
मानो अँधेरे को भी खुदसे.............. अब घुटन होने लगी ||




                एक चीटी भी सिखाती .....

क्या पता कब किसकी बातें दिल को फिर छूने लगे 
क्या पता ये होठ तेरे........ फिर से हसना सीख लें 
मैंने एक कोशिश ही की थी...... वोह मुस्कुरा कर फिर चलें 
बीते सारे गम को पीछे छोड़कर आगे बड़े 

हर ख़ुशी जीते हो ऐसे ........वक़्त भी तब कम लगे 
गम ही क्यूँ फिर वक़्त के रहमों-करम पर रख चले 

जन्म एक चीटी का पाते ......वक़्त क्या है जान जाते 
इतनी छोटी जिन्दगी मे .......दुःख को फिर कब तक बचाते 
वोह उस चीटी की लगन है......... श्रम मे वोह इतनी मगन है 
एक दाना इतना भारी सर पर रखकर क्यूँ है भागी 
रास्ता लम्बा है इतना ........ जान का जोखम है कितना 
होंगे कितने पैर ऊपर........ सहनी होंगी कितनी ठोकर 
इतने लम्बे रास्ते मे कब तक वोह चल पाएगी 
एक समय दाने को छोड़ .......वोह कुचल ही जाएगी 

मुस्कुराती खिलखिलाती....... चीटी फिर हमको बताती 
खुश हूँ मै दाने को पाकर .......इतने दूर अब इसको लाकर 
और भी हैं मेरे साथी .......मेहनत करके वोह भी खातें 
मुझसे छूटे इस एक दाने ......को वोह लेकर जाएँगी 
इस बहाने कुछ समय ........इस रास्ते को न आएँगी 

उस समय संतोष होगा .....मन यह फिर से खुश तोह होगा 
वक़्त मेरा कम हुआ...... जाने का मुझको गम हुआ 
यह जिन्दगी आधी ही जी..... पर जो बची वोह बाँट दी 
जिस ख़ुशी से महरूम थी ......अब वोह ख़ुशी उनको मिली 
वोह ख़ुशी उनको मिली ।।





                   सुख दुःख का तराजू ......

जिन्दगी के रंग है कितने .........जीने के भी ढंग है कितने
जितने है चेहरे शहर मे........... रास्ते भी होंगे उतने 
जिन्दगी का दायरा......... लम्बा है इतना भी नहीं 
जिन रास्तों को चुन लिया........ बस खो गए उन पर कहीं 

संसार मे  आते है हम .........सुख-दुःख का तराजू लिए 
जिन्दगी चलती नही....... बिना इनका व्यापार किये 
दोष तोह उन राहों का था .........जिन पर थे हम चल दिए 
किसी से हमने सुख लिया ........तोह किसी को दुःख थे दे चले 
दूसरों की उस ख़ुशी मे  कुछ तेरा भी हाथ था 
सुख तोह अपना दे दिया....... फिर  दुःख से क्यूँ है भागता 

सुख दुःख के इस तराजू मे ........जब सुख का है वजन बड़ा 
मोल सुख का गिरना ही था ........खरीदारों का फिर तांता लगा 
जो खरीदे सुख थे हमसे ........कल व्यापारी बन जायेंगे
 दुःख वोह झोली मे  लेंगे........ सुख खरीद हम लायेंगे ||






 
           बुलबुला एक झाग का ....


बार बार हुंकार है भरने की अब आदत हो गयी 
रास्ता जैसा भी हो ....चलने की अब आदत हो गयी 
ऐसा नहीं कि रास्तों की पहचान से महरूम हूँ 
ऐसा नहीं कि .......कोई झूठी आन से मजबूर हूँ 
फिर रास्ते की उस चमक से...... क्यूँ मोहब्बत हो गयी 
फिर रास्ते की उस चमक से...... क्यूँ मोहब्बत हो गयी 

बुलबुला एक झाग का ........जो उड़ चला आकाश मे 
नाज़ुक सि एक परत के भीतर..... ले हवा कुछ साथ मे 
मौसम सुहाना सा लगे ........या हो गरज तूफ़ान की 
उसने तोह की परवाह थी बस......... फिर से नयी उड़ान की 

पर जब जब है वोह उंचाईयों मे मदहोश होता जायेगा 
वक़्त की एक मार होगी ........अस्तित्व ही मिट जायेगा 
जिस हवा को ले उड़ा......... वापस है फिर लौटाएगा 
यह पुराना सत्य था....... फिर भी न समझ पायेगा ||